Jharkhand ki Janjatiyan- Aadim janjati- santhal jati- chitrakala
झारखंड में 32 प्रकार के जनजातियाँ पाई जाती हैं। जिसमें से आठ जनजाति (बीरोहर, असुर, कोरवा, पहाड़िया, विरजिया, सौरिया पहाड़िया माल पहाड़िया तथा सबर) को आदिम जनजाति किस श्रेणी में रखा गया है। इसमें से असुर सबसे प्राचीन जनजाति है। वर्तमान में या जनजाति लुप्त होने की कगार पर है। इस जनजाति के लोग राँची, लोहरदगा, धनबाद एवं सिमडेगा में रहते हैं।
झारखंड जनजातियों का अधिवास
पुरापाषाण काल से झारखंड जनजातियों का अधिवास रहा है तथा इनकी संस्कृतिक विशिष्टता झारखंड की वर्तमान पहचान है। यहाँ की अधिकांश जनजातिय परिवार एकल होते हैं। इनका सामाजिक पतृसत्तात्मक होता है। फिर भी समाज में महिलाओं को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। बाल विवाह एवं दहेज प्रथा जैसी कुप्रथा प्राय: इनके समाज में नहीं है।
कृषि तथा पशुपालन अधिकांश जनजातीय लोगों की प्रमुख आजीविका है। कुछ जनजातियां ऐसे हैं जो अपनी जीविकोपार्जन के लिए शिकार एवं वन उत्पाद पर निर्भर है। लोहरा, करमाली, महली जैसी जनजातियां शिल्पकारिता के लिए जानी जाती है। झारखंड में जनजातियों का प्राचीन धर्म “सरना” धर्म है। इसमें प्रकृति की पूजा की जाती है। सूर्य को अधिकांश जनजातियों का प्रमुख देवता माना जाता है।
पाहन इनका पुजारी होता है। झारखंड के जनजातीय समाज में लोक संगीत एवं लोक नृत्य काफी समृद्ध है, जो इनके मनोरंजन का प्रमुख साधन है।
जनजातीय समाज कई गोत्रों में बांटा है एवं इन गोत्रों का एक ही पहचान चिन्ह होता है। एक गोत्र में विवाह निषेध माना जाता है। मृत्यु के बाद शव को गाड़ने एवं जलाने दोनों की प्रथाएँ है।
जनसंख्या की दृष्टि से संथाल, उराँव, मुंडा एवं हो को क्रमशः पहला, दूसरा, तीसरा तथा चौथा स्थान प्राप्त है।
![]() |
Art of Jharkhand |
झारखंड के चित्रकारी
प्राचीन भारत में विविध ललित कलाओं में पारस्परिक घनिष्ठ संबंध था। चित्रकला को सभी कलाओं में श्रेष्ठ माना गया है। भारत में चित्रकला का उद्भव प्रागैतिहासिक युग में हो गया था। झारखंड में भी चित्रकारी को लोग बहुत ही मनमोहक ढंग से प्रस्तुत करते हैं।
संथाल जनजाति में चित्रांकन एक लोककला के रूप में काफी प्रसिद्ध है। जादोपटिया शैली काफी प्रचलित शैली है। संथाल समाज के मिथकों पर आधारित इस लोककला में समाज के विभिन्न रीति-रिवाजों, धार्मिक विश्वासों और नैतिक मान्यताओं की प्रस्तुति की जाती है। चित्रों की रचना करने वाले को संथाली भाषा में जादो कहा जाता है।
यह कला पहले वंशानुगत हुआ करती थी। इस शैली में समान्यतः छोटे कपड़ों या कागज के टुकड़ों को जोड़कर बनाए जाने वाले पटों पर चित्र अंकित किए जाते हैं। प्रत्येक पट 15 से 20 फीट चौड़ा होता है। इन पर 4 से 16 चित्र तक बनाए जाते हैं। चित्रों में मुख्यतः लाल, हरा, पीला, भूरा और काले रंग का इस्तेमाल किया जाता है।
वैसे जंगल, झरनों और पहाड़ों के बीच बसने वाले लोगों का जीवन प्रकृति के सहज सौदंर्य से प्रेरित होता है। उनका सौंदर्य बोध उनके घरों की सजावट में प्रतिबिंब होता है। आमतौर पर साफ-सुथरे घरों की दीवारों पर चिकनी मिट्टी का लेप और मिट्टी तथा वनस्पति से प्राप्त रंगों से उकेरी जाने वाली आकर्षक आकृतियाँ इनके समाज का सहज सरल जीवन में निहित कला और सौंदर्य बोध का प्रमाण है।
0 Comments
Thanks for comment! Keep reading good posts in Reyomind.com Have a good day !